रवा राजपूतों का इतिहास
प्राचीन काल में हमारे देश ने विश्व में जो गौरव प्राप्त किया था उसमें हमारे पूर्वजों का अथक प्रयास, साहस, शोर्य और बुद्ध्िमता का योगदान था। किसी भी देश की शासन व्यवस्था उसके सांस्कृतिक आर्थिक नैतिक व प्रशासनिक स्तर का निरधारण करती है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास मे राजपूतों का अमिट योगदान रहा है। भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर राजपूत क्षत्रियों के अनेक वंश, गोत्र, ऋषिगोत्र, शाखाऐं रही है जो भिन्न भिन्न स्थानो पर विभिन्न नामों से अपनी पहचान बनाऐ हुए है। इनमे बहुत सी व्यक्ति विशेष, राजवंश, स्थान, संगठन एवं ऋषि परम्परा के नाम से विख्यात हैं। रवा राजपूत उनमे से एक है। इसे ही कुछ इतिहासकारो ने रया, रवा, रावाद, राजन्य ,रैवा और राय आदि नामों से सम्बोधित किया है।
इनमे प्रमुख विद्वान डा.गणेशी लाल वर्मा, सब्जी मंडी, दिल्ली, डा. रामसिहं रावत, नरायणा, दिल्ली, नेमपाल सिहं वर्मा मौजपुर दिल्ली, श्री हरगोविदं सिहं व बलबीर सिहं वीर, बरमपुर बिजनौर, डा. हमेन्द्र कुमार राजपूत, वशुन्धरा गाजियाबाद आदि हैं। अधिकांश विद्वानो का मत है कि रवा शब्द दुसरे शब्दों का अपभ्रशं या शाब्दिक संधि से उत्पन्न शब्द है। परन्तू गोविन्द सिहं ने रवा शब्द को मौलिक रूप मे स्वीकार किया है और स्वदेश चर्चा पत्रिका के सम्पादक आनन्द प्रकाश आर्य वैद्व ने भी अपने लेखों में इसका प्रयोग किया है।
मैंने लगभग सभी विद्वानों के लेखों, पुस्तकों एवं इतिहास पुराण, शब्दकोश तथा महाभारत जैसे शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन किया है मेरी और इतिहास की ऐसी मान्यता है कि कोई भी शब्द तब तक अपभ्रंश नही हो सकता जब तक वह अपने मूल स्वरूप में ऐतिहासिक ग्रन्थों व शास्त्रों में विधमान हों।
रवा शब्द का सम्बन्ध शास्त्रों में पुरू रवा से है जो रवा राजपूतों के आदि पुरूश कहे जाते है। इनका इतिहास लाखों वर्ष पुराना है। छठे मन्वन्तर (चाक्षुश मन्व-तर) काल के अन्तिम चरण में भौगोलिक घटनाओं के कारण प्रलय आयी थी और पूर्ण सृश्टि नश्ट हो गयी थी। ब्रहमा जी की भविश्यवाणी के अनुसार और उपाय बताने के आधार पर मनु वैवस्वत ने सप्तऋशियों के साथ एक नौका में सृश्टि के सम्पूर्ण बीज सुरक्षित रख लिए थे। मनु ने अपनी नौका हिमाचल प्रदेश में मनाली के पास स्थापित की थी, महाभारत, विश्णु और मार्कण्डेय पुराण में इसका विस्तृत उल्लेख मिलता है। आज भी नौका बन्धन नाम का स्थान मनाली के पास है और यही पर सरस्वती नदी के तट पर वैवस्वत मनु ने सृश्टि का पुन: आरम्भ किया था। मनु द्वारा मानव उत्पत्ति का स्थान ही मनाली नाम से प्रसिध्द हुआ। यहां मानव जीन्स विधि से सृश्टि का विस्तार किया गया था, वर्तमान विज्ञान इसकी मान्यता देता है। सप्तऋशियों के नाम से ही ऋशि गौत्र प्रारम्भ हुआ और इस समय से सांतवा मन्वन्तर (वैवस्वल मन्व-तर) काल प्रारम्भ होता है। कष्यप ऋशि द्वारा सृश्टि का पुरा विकास होता गया।
कालान्तर में इन मानवों में विशेष मानवों के दो क्षत्रिय वंश - सूर्य वंश और चन्द्र वंश प्रांरम्भ हुए। मनु के वंश में सूर्य और विश्णु की उत्पत्ति हुई थी सूर्य वंश के वंशज इक्ष्वाकु ने साकेत नगरी की स्थापना की जो बाद में अयोध्या नाम से प्रसिध्द हुई। इक्ष्वाकु ने ही सूर्य वंश की स्थापना की, इसी प्रकार अत्रि ऋशि के दो पुत्र दत्तात्रेय और दुर्वासा महान योगी बने परन्तु जयेश्ठ पुत्र खन्ड ने गृहस्थ जीवन में प्रवेष किया। चन्द्र के पुत्र बुध्द का विवाह सूर्यवंश के स्थापक महाराज मनु की चौथी पीढ़ी में उत्पन्न राजा इक्ष्वाकु की बहिन इला से हुआ। बुध्द ने विवाह के बाद अपने पिता चद्र के नाम से कैषाम्बी वर्तमान इलाहाबाद- प्राचीन नाम इलापुरम प्राकृश्टयाग प्रयाग प्रतिश्ठान पुरम में चन्द्र वंश की स्थापना की गयी। रानी इला से पुरूरवा नाम का पुत्र पैदा हुआ जो चन्द्र वंश का महान प्रतापी राजा हुआ। पुरूरवा से जय, विजय, आयु, अतायु, षलायु और रय नाम के छ: पुत्र हुए (महाभारत 64 पृ. 232) पर देखें।
पुरूरवा ने बाढ़ के प्रकोप से बचने के लिए प्रतिश्ठान पुरम (इलाहाबाद) को छोड़कर पष्चिम की और प्रवास किया और यमुना नदी के बीच में अरावली पर्वतमाल की सबसे छोटी श्रेणीयों के ऊपरी भाग पर खण्ड़ो में अपनी राजधानी बसाई (हे.कु.राजपूत महाभारत का प्रादेषिक भूगोल शोध ग्रन्थ देखें)
राज्य के पश्चिम में स्थित होने से और खण्डों में अनुवासित होने से यह नगरी खाण्डवप्रस्थ कहलाई (पाणिनी- अश्टाध्यायी) इस नगरी का विस्तार वर्तमान में नारायणा (दिल्ली) से लेकर महरौली तक था। भगवान नारायण को प्रसन्न करने की दृश्टि से एक ऊंचे स्थान पर पुरूरवा ने महायज्ञ किया और नारायण वहां उपस्थित हुए, इसलिए यह स्थल नारायणा नाम से प्रसिध्द हुआ, हो सकता है कालान्तर में किसी नारायण सिंह ने अपने नाम को सार्थक करने के उदेष्य से इसे नारायण सिंह तवंर के नाम से जोड़ दिया हो परन्तु प्राचीन शास्त्रीय इतिहास में जैसा लिखा है वैसा ही उल्लेख किया गया है।
खाण्डवप्रस्थ में राजा पुरूरवा के पुत्र आयु, आयु से नहुस और नहुस के पुत्र ययाति ने शासन किया। पुरूरवा ने सम्पूर्ण भारत के साथ-2 समुद्र के तेरह द्वीपों पर भी शसन किया (महाभारत-1/74/19) पर देखें।
राजा ययाति के यदु, तुर्वसु, हुहयु, अनु और पुरू पाँच पुत्र हुए। पुरू ने ही रवा वंश की स्थापना की । कालान्तर में पुरू के वंशज, पौरवा कहलाने लगे (महाभारत- 1/75/56) ययाति के आशीर्वाद से यह चन्द्रवंश पौरव वंश के नाम से विख्यात हुआ। कालान्तर में चन्द्रवंशीय पौरवों की हठधर्मिता के कारण ऋशि-मुनियों ने क्रोधित होकर खाण्डप्रस्थ नगरी को उजड़ने का श्राप दिया, इसलिए वर्षो तक यह नगरी उजड़ती बसती रहीं।
महर्शि वैषम्यायन, जनमेजय को उसके पूर्वजों की कथा सुनाते हूए कहते है कि यदु से यादव क्षत्रिय, तुर्वसु से यवन, द्रहयु से मौज और अनु से म्लेच्छ जातियां उत्पन्न हुई तथा पुरू से पौरव वंश चला जिसमें जनमेजय तुम पैदा हुए हो। (1/85/34-35)
महाभारत युध्द से पूर्व काल में इसी वंश में राजा कुरू हुए जिस के वंशज कौरव कहलाये। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर युग तक चन्द्रवंषीय क्षत्रियों का पौरवा- कौरवा शब्द पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा। पौरवा की पीढ़ी में राजा मतिनार के तसुं नामक पुत्र जिनके वंशज तवंर कहलाये।
डा. रामसिहं रावत नरायणा दिल्ली के लेखों में मैनें पढ़ा है कि सन 962 में राजा जयपाल सिहं तवंर का तुर्को से युध्द हुआ जिसमें तुर्को से उन्हें पराजित होना पड़ा यही वह समय था जब बारह हजार हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया था। सन् 997 ई. में राजपूतों ने संघ के रूप में राजपूतों को संगठित करने के उद्देष्य से राजपूत संघ का आयोजन किया। सन् 1023 तक सभी राजपूतो को संगठित कर राजा जयपाल देव तवंर ने राजपूत वाहिनी दल के रावाद के नाम से संगठन तैयार किया जिस के बल पर गजनी पति महमूद को हराकर उत्तर भारत में विजय प्राप्त की थी। दिल्ली पति कुमार पाल तवंर के नेतृव्य में संघीय प्रणाली के आधार पर गठित रावाद की प्रतिश्ठा सर्वत्र फैल गयी। उसके राजपूत सदस्य रावाद कहलाने में गौरव समझने लगे यही रावाद कालान्तर में रावद व रवा बन गया।
महाभारत काल में खाण्डवप्रस्थ नगरी को पुन: बसाया गया युधिश्टर ने इसे इन्द्रप्रस्थ नाम दिया। इस काल के लगभग तीन हजार वर्शों के उपरान्त इसी रवा वंश में राजा दिलू हुए जिनके नाम से इस नगरी का नाम दिल्ली पड़ा। तवंर गौत्र के राजपूतों का दिल्ली पर अधिकार रहा। महाराजा अनंगपाल तंवर ने रायपिथौरागढ़ नगरी बसाई महरौली के पास दिल्ली मे जिनके आज भी अवषेश मिलते है। जिनका महल लाल कोट नाम से प्रसिध्द हुआ। इसी वंश का अन्तिम क्षत्रिय राजपूत राजा पृथ्वी राज चौहान हुआ। कुछ लोगों ने महापुरूशों के नाम से अपने गौत्र व स्थान विशेश के आधार पर अपने वंश स्थापित कर लिए, लेकिन उनमें से बहुत से ऐसे भी थे जो रवा शब्द को इतिहास के पन्नों से समाप्त नहीं करना चाहते थे। महाभारत युध्द के बाद रवा क्षत्रिय चारों और सभी दिशाओं में फेलते बसते गये। दिल्ली, मेरठ, मुजफ्फर नगर, बिजनौर, सहारनपुर, हरिद्वार, हरियाणा, हिमाचल, पंजाब, मेघालय, गढ़वाल, आसाम, मद्रास, गुजरात, आन्ध्रप्रदेश में अपनी पहचान रवा राजपूतों के रूप बनाये रखी। एक खास बात यह थी कि उक्त वर्णित स्थलो के रवा राजपूतों ने मुसलमान बादशाहों के दबाव में आकर मुसलमान धर्म को ग्रहण नही किया। इसका कारण यह रहा है कि जब उत्तार-पष्चिम भारत में शको व हुणों के आक्रमण हो रहे थे तब शुक्रताल नामक स्थान से सभी रवा राजपूत गंगा पार करके चले गये थे। बाद मे वापिस आ गये, कुछों ने जगंल साफ कर उन्हें खेती योग्य बनाकर वही गांव बसा लिए।
इतिहास में ऐसा भी लेख मिलता है कि कुछ रवा राजपूतों ने गंगा पार करके पहला गांव कण्व-ऋर्शि आश्रम (माद्रेयपुर-मण्डावर) के पास और मेनका लाल ऐतिहासिक स्थल के पास मालिन नदी की उपजाऊ मिट्टी में बसाया जो मोहदिया नाम से प्रसिध्द हुआ और जो वर्तमान में मौहडिया है। यही से रवा राजपूतों ने जनपद बिजनौर में ब्रह्मपुर वुडगरा-वरमपुर बसाया तब मालिनी नदी पश्चिम में बहती थी नदी का प्रवाह बदलने से दोनों गांव अलग -2 हो गये। माहोदिया और ब्रहमपुर गावों का उल्लेख मोर्य काल व गुप्त काल में चीनी यात्री होन्तासांग व फाहयान ने भी अपनी यात्रा प्रसंग में किया है। इससे पूर्व पाणीनी ने अपने अश्ठाध्यायी में मण्डावर का उल्लेख माद्रेयपुर कण्व ऋशि आश्रम के रूप में किया है। कृषि व पशुपालन और इनसे सम्बधित व्यापार यहां के रवा राजपूतों का मुख्य व्यवसाय बन गया। बिजनौर जनपद में रवा राजपूतों ने तपोवन के मालिनी तटीय वन क्षेत्र को साफ कर कृषि कार्य प्रारम्भ किया और इस नदी के दोनों ओर लगभग 30 कि. मी. में बसतें चले गये। कुछ राजपूत जो वहां नही बस पाये वे राजस्थान चले गये और वहां जाकर बस गयें उन्होंने वहां के स्थान विषेश व राजघरानों से प्रभावित होकर गोत्र व वषं अंगीकार कर लिए। इसलिए ही कुछ गोत्र चन्द्रवषं में भी है वही गोत्र सूर्य वषं में भी दिखाई पड़ते है।
राजपूत राजाओं का काल सन् 648 ई. में कन्नौज के राजा हर्शवर्ध्दन की मृत्यु के बाद आरम्भ होकर मुगल काल तक रहा। पुरूरवा के पुत्र रय के वषंज व अनुयायी कालान्तर में रवा राजपूत कहलाये गये। रवा, रया, राई, रवरय रांव राय में सभी शब्द इतिहास में मिलते हैं ये किसी शब्द के अपभ्रश नही है।अपने इतिहास पर स्वाभिमान रखते हुए हमें गौरवान्वित होना चाहिए कि हमारे पूर्वजों ने इतिहास के अनेक झझावातों को झेलते हुए रवा शब्द को अक्षम बनाये रखा अपने देश का नाम जिस भरत के नाम प्रसिध्द हुआ वह भरत भी रवा क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न हुआ था। इसका हम सभी को गर्व होना चाहिए। सर्वोच्च गौरवशली राजपूत परम्परा के वाहक रवा राजपूत मूल क्षत्रिय वंशज है। भारतीय समाज में इन्हे अपनी अनयत्र पहचान की आवश्कता नहीं है। रवा राजपूत समुदाय में प्रारम्भ में छ: गौत्रो (राठौर, सांगा, तवंर, गहलोत, चौहान व सिसौदिया) की सहमति मानी थी परन्तु बाद के अन्य राजपूतों गौत्रो में परस्पर शादी विवाह के साथ-साथ अन्य राजपूत गौत्र भी इसमें शामिल होते चले गयें। इन्होने सदा इतिहास रचा है। राम से अर्जुन और दुश्यन्त पुत्र भरत, पृथ्वीराज चौहान, अमदसिहं राठौड़ व वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप की महान वंश परम्परा ने सदा ही अपनी रगो में बहते खून की श्रेश्ठता सिध्द की है एंव रवा वंशजों के रूप में आपका गौरव बढ़ाया है।
अब से पांच हजार वर्श पूर्व आर्यो का ऐतिहासिक ग्रन्थ महाभारत है। उसमें कही हिन्दू शब्द नही आता इससे लाखों वर्श पूर्व का वर्तमान में अति प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थ रामायण है जो समकालिन महर्शि बाल्मिक द्वारा रचित है। महर्शि बाल्मिक बौधिक काल के ऋर्शि थें रामायण में आर्र्यवत्ता का वृहत चित्रण विद्यमान है। आदि ऋर्शि से मरीची, कष्यप, सूर्य तथा मनु और मनु से इक्ष्वाकु उत्पन्न हुए इनमें सूर्य वंश के प्रधान के प्रधान महाराजा कष्यप से सूर्यवंश, चन्द्रवंश, नागवंश और दैत्यवंश की उत्पत्ति हुई। कहावत रही भूले चुके कष्यप गौत्र।
महाराजा मनु के समकालिन सप्तऋर्शिया में महात्मा अत्रि जी चदंवंश के आदि गोत्रपति हुए है। महात्मा अत्रि की धर्मपत्नी अनसूइया जी से ज्येश्ठ पुत्र जो चंन्द्र जी पैदा हुए और फिर परमयोगी दत्ताात्रेय तथा दुर्वासा उत्पन्न हुए। चन्द्र जी के पुत्र बुद्द परम तेजस्वी अयोध्या के समीपवर्ती ग्राम में रहते थे। राजकुमारी इला महाराजा इक्ष्वाकु जी की बहिन समीपवर्ती वन में बिहार (भ्रमण) कर रही थी उसी वन में चन्द्र पुत्र बुध्द भी भ्रमण कर रहे थे यहां दोनो का साक्षात्कार हो गया तथा विवाह हुआ।
बुध्द जी से चन्द्रवंश का वृक्ष आरोपित हुआ जिसका नाम प्रतिश्ठानपुर अर्थात आज प्रयाग है। यह चन्द्र वंश की राजधानी हुआ। बुध्द के पुत्र परम प्रतापी नरेष पुरू रवा का निरन्तर उगते चढ़ते सूर्य की भांति गौरव बढ़ता गया। चन्द्र वंश का कुर्सा नामा भारत राजवंषी इतिहास के अनुसार पुरूरवा के छ: पुत्र पैदा हुए जिनका ब्यौरा मैनें पूर्व में दर्षाया है एंव उपरोक्त द्वारा यही उल्लेख समझाने के कारण और खोलकर इसलिए लिखा गया है कि कोई बात समझ से बाहर न रह जाय। जनपद बिजनौर में बसने वाले राजपूत पुरूरवा के नाम पर रंवा राजपूत, मेरठ, मुजफ्फर नगर, सहारनपुर, हरिद्वार, हरियाणा, हिमाचल, पंजाब, मेघालय, आसाम, मद्रास, गुजरात, व आन्ध्राप्रदेश के राजपूत रय राजपूत कहलाये। चन्द्र वंशी जितने है वे सब पुरूरवां के वंशज शेष अग्नि वंशी सूर्य वंशी है। ऐतिहासिक चारण कवि का दोहा आता है-
दस रवि से, दस चन्द्र से, बारह ऋर्र्शि प्रधान। चार जो अग्निवंश के, यूँ छत्तिस बखान ।
राजपूतो के छत्तीस वंषो की नामावली इतिहास में मिलती है जिनका सम्पूर्ण ब्यौरा मैं उल्लेख कर रहा हूँ।
1- चन्द्र वंश - सोम, यादव, तोमर जिट, गहरवार, झाला, मोहिल, दाबी, राजपाली, हंस (10)
2- सूर्य वंश - सूर्य, सविर्या, कद्दवाह, काथी, बल्ला, निकुम्भ, चावड़ा, तक्षक, गोहिल, ठौष (10)
3- अग्निवंश - परिहार, सौलंकी, परमार या पवांर, चौहान (4)
4- ऋर्शि वंश - सगर, गौर, कमारी, डोडा, बडगूजर, सिकर वार, गहलौत, राठौर, दहिया, जोहिया, दाहिमा, सिनार (12)
इस प्रकार छत्तिस राजवंषो का उल्लेख है। छ: राजवंश, रवा राजपूतों के समुदाय में है।
सर्वप्रथम - तवंर (तोमर) वंश का वर्णन मिलता है प्रथम यह वंश पुरूरवा के नाम से प्रसिध्द रहा। अपभ्रशं होते -होते पुरूरवा से रवा या रया हो गया। पुरूरवा की चौथी पीढ़ी के राजा ययाति हुए इनकी दो रानियां थी, पहली शुक्रचार्य की पुत्री देवयानि से दो पुत्र यदु और तुर्असु उत्पन्न हुए। दूसरी रानी वृशवर्या की पुत्री अभिश्ठा से तीन पुत्र अनु, दुहयु तथा पुरू हुए। इन्हीं पाचों से इस वंश की वृध्दि हुई अर्थात इस चन्द्रवंश में पुरूरवा नहुप, ययाति, यदु भरत, पुरू, कुरू, शान्तनु, घृतराश्ट्र, पान्डू युधिश्ठर, दुर्योधन, योगेष्वर श्री कृश्ण और बलराम आदि हुए। पुरूरवा के उपरान्त यह वंश यदुवंश कहलाया और लम्बे अंतराल के पश्चात इसमें राजा अनंग पाल प्रथम के समय इस चंन्द्र वंश में से तोमर वंश का उदय हुआ, जो दूर -दूर तक फैला है।
दूसरा यादव वंश जो इसी का अंग है, वे यदु के नाम पर अपने को यादव कहने लगे। इनका भी काफी विस्तार है। इतिहास में मोर्यवंश से उत्पत्तिा लिखी है। मालवाधार इनकी राजधानी थी।
तीसरा पंवार वंश जो बागपत, बिजनौर में है।
चौथा वंश चौहान वंश जो राजपूत सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिध्द है जो बागपत, बिजनौर में है।
पांचवा वंश गहलौत जो राजपूतों के सूर्य महाराणा प्रताप के कारण देश देशान्तर में जाना जाता है, इस वंश के राजपूत बिजनौर जनपद के कई ग्रामों में निवास करते है।
छटवां वंश कद्दवाहे वंश इसमें महाराजा संवाई जयसिंह प्रसिध्द हुए है जिन्होने जयपुर का उध्दार किया इस वंश के रवा राजपूत जनपद बिजनौर एवं राजस्थान में निवास करते है।
उपरोक्त छ: राजवंषो का विकास क्रम निम्नानुसार इतिहास में दर्शाया गया है। यह स्थल इन वंशो के गढ़ है।
1- तोमर वंश - हस्तिनापुर, महरौली, दिल्ली, तवंरगढ़
2- पवांर वंश - कलानौर, उज्जैन, चन्द्रवली और तातारपुर
3- चौहान वंश - अजमेर, धोलकोट, साभंर, चित्रकूट
4- यादव वंश - मथुरा
5- गहलौत वंश - बल्लभीपुर
6- कद्दवाहे वंश - आमेंर जयपुर
स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी रहे राजपूत यानि रवा राजपूत बन्धुओं का इतिहास सर्व खाप पंचायत नामक पुस्तक में मिलता है। 1856 ई में ठाकुर राम चन्द्रसिंह जनपद बिजनौर स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राणों की आहुति दी थी। इसी पुस्तक में पृ-61 में राणा सांगा और बाबर के युध्द में रवा राजपूतो ने महाराजा धौलपुर के सेनापतित्व में लडकर वीरगति पायी। नादिरषाह की लड़ाई में भी रवा राजपूत ही थे जिन्होनें उनका सामना किया था। तैमूर आक्रमण जो बड़ा भयंकर था जिसमें ढ़ाई लाख की विषाल सेना में सर्र्व खाप पंचायत के 80 हजार वीर, 40 हजार देवियां मर्दाना वेष में लड़ी उसमें रवा राजपूत ही सरदार थे। सेनापतियों में मेवासिंह तथा बलदेव सिंह रवा राजपूतों के नाम उल्लेखनीय है। बहादुरषाह (गुजरात के बादषाह) ने जब चितौड़ पर चढ़ाई की उसमें ठाñ हरसुख सिंह रवा राजपूत की वीरता का वर्णन मिलता है। इस युध्द में 795 वीरो ने वीरगति पायी थी जिसमें 210 रवा राजपूत सरदार थे।
कांग्रेष द्वारा चलाये गये स्वतंत्रता सग्रांम में मेरठ, मु नगर व बिजनौर जनपदों के 17 सैनानी के नामों का उल्लेख रवा राजपूतो का मिलता है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि रवा राजपूत देष के किसी भी कार्य में पिछे नही रहे है। इन्होने सदैव गौरवषाली इतिहास रचा है। मेरा विचार है कि इस इतिहास की ऐतिहासिक पुस्तक का हर परिवार के बालकों तक पहुँचाना चाहिए जिससे अपनी जाति के गौरवषाली इतिहास की जानकारी मिले और उनका मनोबल ऊँचा रहे।
रवा राजपूत इतिहास का सर्दभ:
1- महाभारत
2- मनुस्मृति 1/019
3- गौरी शंकर हरिष चंद ओझा - राजपूताने का इतिहास पृ.42
4- हरि हर निवास द्विवेदी: दिल्ली के तोमर पृ.282
5- चमनो देवी वर्मा: रवा राजपूतो की जाति का मौलिक परिचय पृ-3
रवा राजपूत इतिहास लिखने मे उक्त सर्दभों एंव लेखो का अध्ययन कर तैयार किया गया है। मेरी कोशिश है कि मेरे समाज के प्रयेक व्यक्ति को अपने समाज का परिचय मिले जिससे उनकी अनभिज्ञयता समाप्त हों।
अस्मिता का अपनी जिसे मान नहीं हैं,
आन -बान नही, जिसकी शान नही हैं।
वह कौम क्या जियेगी, भला दोस्तों
जिसे स्वंय अपनी ही पहचान नही हैं।।
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